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पहले घिरे थे बे-ख़बरों के हुजूम में | शाही शायरी
pahle ghire the be-KHabron ke hujum mein

ग़ज़ल

पहले घिरे थे बे-ख़बरों के हुजूम में

ओवेस अहमद दौराँ

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पहले घिरे थे बे-ख़बरों के हुजूम में
अब आ गए हैं दीदा-वरों के हुजूम में

कुछ भी नहीं है उड़ती हुई राख के सिवा
क्या ढूँडते हो कम-नज़रों के हुजूम में

शहरों में आइनों के ख़रीदार ही नहीं
इक बे-कली है शीशा-गरों के हुजूम में

पहचान लीजे कौन है इंसाँ का रहनुमा
इन बे-शुमार राहबरों के हुजूम में

पैवंद की तरह नज़र आता है बद-नुमा
पुख़्ता मकान कच्चे घरों के हुजूम में

तेशा-ब-दस्त हर कोई रहता है रात दिन
हम दिल-जलों के बे-जिगरों के हुजूम में

'दौराँ' भी एहतिजाज ही करते हुए मिले
सड़कों पे गश्त करते सरों के हुजूम में