पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है
सियाहियों के जिगर से ज़िया निकलती है
कभी तो मुझ को भी एहसास-ए-आशनाई दे
वो रौशनी जो कफ़-ए-गुल पे जा निकलती है
मैं आँख बंद करूँ तो भी है वही मंज़र
वो एक शक्ल हर इक रू पे आ निकलती है
सराब-ए-फ़हम से आगे कहीं है बहर-ए-मुराद
हर एक मंज़िल-ए-दिल नक़्श-ए-पा निकलती है
कभी जो खुल के करूँ बात अपने आप से मैं
हर एक आरज़ू ग़म-आश्ना निकलती है
हुजूम-ए-अक्स में चेहरा तलाश कैसे करें
हर एक शक्ल एहसास-ए-ख़ला निकलती है
सरक रहे हैं अंधेरे हर एक बस्ती से
अज़ाब-ए-अब्र से क़ुर्स-ए-वफ़ा निकलती है
मिरे यक़ीं की घुटन और भी बढ़े 'नाहीद'
हवा हो बंद तो मौज-ए-बला निकलती है
ग़ज़ल
पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है
किश्वर नाहीद

