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पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है | शाही शायरी
pahan ke pairhan-e-gul saba nikalti hai

ग़ज़ल

पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है

किश्वर नाहीद

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पहन के पैरहन-ए-गुल सबा निकलती है
सियाहियों के जिगर से ज़िया निकलती है

कभी तो मुझ को भी एहसास-ए-आशनाई दे
वो रौशनी जो कफ़-ए-गुल पे जा निकलती है

मैं आँख बंद करूँ तो भी है वही मंज़र
वो एक शक्ल हर इक रू पे आ निकलती है

सराब-ए-फ़हम से आगे कहीं है बहर-ए-मुराद
हर एक मंज़िल-ए-दिल नक़्श-ए-पा निकलती है

कभी जो खुल के करूँ बात अपने आप से मैं
हर एक आरज़ू ग़म-आश्ना निकलती है

हुजूम-ए-अक्स में चेहरा तलाश कैसे करें
हर एक शक्ल एहसास-ए-ख़ला निकलती है

सरक रहे हैं अंधेरे हर एक बस्ती से
अज़ाब-ए-अब्र से क़ुर्स-ए-वफ़ा निकलती है

मिरे यक़ीं की घुटन और भी बढ़े 'नाहीद'
हवा हो बंद तो मौज-ए-बला निकलती है