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पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं | शाही शायरी
paDta tha is KHayal ka saya yahin kahin

ग़ज़ल

पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं

इनाम नदीम

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पड़ता था इस ख़याल का साया यहीं कहीं
बहता था मेरे ख़्वाब का दरिया यहीं कहीं

जाने कहाँ है आज मगर पिछली धूप में
देखा था एक अब्र का टुकड़ा यहीं कहीं

देखो यहीं पे होंगी तमन्ना की किर्चियाँ
टूटा था ए'तिबार का शीशा यहीं कहीं

कंकर उठा के देख रहा हूँ कि एक दिन
रक्खा था मैं ने दिल का नगीना यहीं कहीं

इक रोज़ बे-ख़याली में बर्बाद हो गई
आबाद थी ख़याल की दुनिया यहीं कहीं