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पड़ीं ये किस के जल्वे पर निगाहें | शाही शायरी
paDin ye kis ke jalwe par nigahen

ग़ज़ल

पड़ीं ये किस के जल्वे पर निगाहें

शरफ़ मुजद्दिदी

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पड़ीं ये किस के जल्वे पर निगाहें
निगाहें बन गईं ख़ुद जल्वा-गाहें

कहे मुझ से न कोई ज़ब्त-ए-ग़म को
अभी मुँह से निकल जाएँगी आहें

सुलूक अपना है उन के नक़्श-ए-पा पर
यही हैं मंज़िल-ए-इरफ़ाँ की राहें

उन्हें देखें वो देखें या न देखें
उन्हें चाहें वो चाहें या न चाहें

चलाए थे जिन्हों ने तीर दिल पर
हम आँखों में लिए हैं वो निगाहें

नतीजा है ये आहें खींचने का
हमें खींचे लिए फिरती हैं आहें

'शरफ़' किस ने ये डाली आँख में आँख
निगाहों से निकल आईं निगाहें