पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
बिजली ने घटाओं पे जो तहरीर लिखी थी
चुप साध के बैठे थे सभी लोग वहाँ पर
पर्दे पे जो तस्वीर थी कुछ बोल रही थी
लहराते हुए आए थे वो अम्न का परचम
परचम को उठाए हुए नेज़े की अनी थी
डूबे हुए तारों पे मैं क्या अश्क बहाता
चढ़ते हुए सूरज से मिरी आँख लड़ी थी
इस वक़्त वहाँ कौन धुआँ देखने जाए
अख़बार में पढ़ लेंगे कहाँ आग लगी थी
शबनम की तराविश से भी दुखता था दिल-ए-ज़ार
घनघोर घटाओं को बरसने की पड़ी थी
पलकों के सितारे भी उड़ा ले गई 'अनवर'
वो दर्द की आँधी कि सर-ए-शाम चली थी
ग़ज़ल
पढ़ने भी न पाए थे कि वो मिट भी गई थी
अनवर मसूद