पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
कि मेरे ब'अद भला और कौन था मेरा
अजीब तौर की मुझ को सज़ा सुनाई गई
बदन के नेज़े पे सर रख दिया गया मेरा
यही कि साँस भी लेने न देगी अब मुझ को
ज़ियादा और बिगाड़ेगी क्या हवा मेरा
मैं अपनी रूह लिए दर-ब-दर भटकता रहा
बदन से दूर मुकम्मल वजूद था मेरा
मिरे सफ़र को तो सदियाँ गुज़र गईं लेकिन
फ़लक पे अब भी है क़ाएम निशान-ए-पा मेरा
बस एक बार मिला था मुझे कहीं 'आज़र'
बना गया वो मुझी को मुजस्समा मेरा
ग़ज़ल
पड़ा था लिखना मुझे ख़ुद ही मर्सिया मेरा
फ़रियाद आज़र