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पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ | शाही शायरी
paDa hua main kisi aaine ke ghar mein hun

ग़ज़ल

पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ

सलीम बेताब

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पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ
ये तेरा शहर है या ख़्वाब के नगर में हूँ

उड़ाए फिरती है अन-देखे साहिलों की हवा
मैं एक उमर से इक बे-कराँ सफ़र में हूँ

तुझे ये वहम कि मैं तुझ से बे-तअल्लुक़ हूँ
मुझे ये दुख कि तिरे हल्क़ा-ए-असर में हूँ

मिरी तलाश में गर्दां हैं तीर किरनों के
छुपा हुआ मैं ख़ुनुक साया-ए-शजर में हूँ

मैं तेरी सम्त भी आऊँगा मअरिफ़त को तिरी
अभी तो अपने ही इरफ़ाँ की रह-गुज़र में हूँ

तिरी उड़ान में शामिल है तर्बियत मेरी
मुझे न भूल कि मैं तेरे बाल-ओ-पर में हूँ

बुला रहा है उधर मुझ को मेरा मुस्तक़बिल
घिरा हुआ मैं इधर हाल के भँवर में हूँ

रखेगी तुझ को मोअत्तर सदा महक मेरी
रचा हुआ मैं तिरे घर के बाम-ओ-दर में हूँ

मिरी परख को भी आएँगे जौहरी 'बेताब'
हूँ ल'अल-ए-ताब मगर शहर-ए-कम-नज़र में हूँ