पानी में अगर अक्स की हालत में बहूँ मैं
मुमकिन है किनारे का किनारा ही रहूँ मैं
ऐ ख़ामा-गर-ए-वक़्त मुझे इज़्न-ए-सुख़न दे
तुझ से तिरी रिफ़अत के तवस्सुल से मलूँ मैं
चलती हुई बातों में उसे काम पड़े याद
ठहरे हुए लफ़्ज़ों में इजाज़त का कहूँ मैं
बीनाई को तरसी हुई बे-रंगी के दर पर
आँखों की असीरी में लिखी नज़्म पढ़ूँ मैं
आवाज़ों के जत्थे में तिरा लहजा परखते
ख़ामोशी से फैली हुई ख़ामोशी सुनूँ मैं
जंगल सी पुर-असरार ख़मोशी लिए 'आरिश'
झरने की तरह शोर मचाता भी रहूँ मैं

ग़ज़ल
पानी में अगर अक्स की हालत में बहूँ मैं
सरफ़राज़ आरिश