पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
पलकों पे अश्क बन के ठहर जाना चाहिए
सौत-ओ-सुख़न के दाएरे तहलील हो गए
क़ौस-ए-नज़र से दिल में उतर जाना चाहिए
एहसास की ज़बाँ को लुग़त से निकाल कर
मा'नी की सरहदों से गुज़र जाना चाहिए
दुनिया की वुसअ'तें हैं ब-अंदाज़ा-ए-नज़र
ये देखने का काम है कर जाना चाहिए
तन्हा नज़र पे कीजिए किस दिल से ए'तिबार
दिल को भी ता-बा-हद्द-ए-नज़र जाना चाहिए
ग़म-हा-ए-ज़िंदगी से न था उम्र भर फ़राग़
अब कुछ तो ज़िंदगी को सँवर जाना चाहिए
जाऊँ कहाँ कि ख़ुद मिरी राहें सफ़र में हैं
राहें सफ़र में हों तो किधर जाना चाहिए
ज़ंजीरी-ए-मकाँ है जहाँ हुस्न-ए-ला-मकाँ
उस अंजुमन में बार-ए-दिगर जाना चाहिए
ज़मज़म हरीम-ए-का'बा में है मामता का दिल
है शर्त-ए-ज़ीस्त डूब के मर जाना चाहिए
जाँ हो अगर मता-ए-तलब से अज़ीज़-तर
परवानों को चराग़ से डर जाना चाहिए
यारो सुना है आप में गुम हो गया 'ज़फ़र'
इस ख़ानुमाँ-ख़राब के घर जाना चाहिए
ग़ज़ल
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
यूसुफ़ ज़फ़र