पामाल-ए-ख़िराम-ए-नाज़ कीजे
ठुकराइए सरफ़राज़ कीजे
दिल तुम ने लिया ज़बान दे कर
आशिक़ का न फ़ाश राज़ कीजे
सोज़-ए-तप हिज्र का ये है हुक्म
तन शम-ए-सिफ़त गुदाज़ कीजे
महमूद हुआ है हुस्न साहब
पहले मुझ को अयाज़ कीजे
हो कोई क़ज़ा जो बादा-ख़्वारो
भट्टी पे अदा नमाज़ कीजे
कहता है ये नाज़-ए-दिल-रुबाई
ऐ आशिक़ो जान नियाज़ कीजे
ना-साज़ ज़माने का नहीं ग़म
हाँ कार ज़माना-साज़ कीजे
ग़ैरों से तो है 'वक़ार' बेहतर
अब आप भी इम्तियाज़ कीजे
ग़ज़ल
पामाल-ए-ख़िराम-ए-नाज़ कीजे
किशन कुमार वक़ार

