पाक है लज़्ज़त-ए-इशरत से ज़बान-ए-वाइ'ज़
जो बला आए इलाही सो ब-जान-ए-वाइज़
हम-नफ़स बाग़-ए-जिनाँ घर है गुनहगारों का
ढूँढ दोज़ख़ में कहीं जा के मकान-ए-वाइ'ज़
ख़िदमत-ए-रिन्द क़दह-नोश में ये बे-अदबी
जी में है काटिए दाँतों से ज़बान-ए-वाइ'ज़
ख़ुद-फ़रामोश है क्या और को समझाएगा
रास्त-बाज़ों से कजी पर है गुमान-ए-वाइज़
क्यूँ न हो तीर-ए-इशारात से आलम मजरूह
क़द्द-ए-ख़म-गश्ता है गोया कि कमान-ए-वाइ'ज़
ग़ज़ल
पाक है लज़्ज़त-ए-इशरत से ज़बान-ए-वाइ'ज़
नसीम देहलवी