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पाएँ जो रौशनी तिरी जल्वा-गरी से हम | शाही शायरी
paen jo raushni teri jalwa-gari se hum

ग़ज़ल

पाएँ जो रौशनी तिरी जल्वा-गरी से हम

नूर मोहम्मद नूर

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पाएँ जो रौशनी तिरी जल्वा-गरी से हम
हो लें क़रीब और भी कुछ बे-ख़ुदी से हम

कर ले क़ुबूल-ए-हुस्न के सदक़े में जान-ओ-दिल
फ़रियाद कर रहे हैं तिरी दिलबरी से हम

ऐसा नसीब मेरा कहाँ मेरे हम-ज़बाँ
कुछ देर बात करते जो हँस कर किसी से हम

ऐ हुस्न मुझ को हुस्न के सदक़े की भीक दे
फैलाए हाथ बैठे हैं किस आजिज़ी से हम

ठुकराओ लाख मुझ को तुम्हें इख़्तियार है
फिर भी न बाज़ आएँगे इस बंदगी से हम