नूर से लाख इख़्तिलाफ़ करो
अज़्मत-ए-मह का ए'तिराफ़ करो
देखना हो जो हुस्न ग़ैरों का
अपनी आँखों से गर्द साफ़ करो
दैर-ओ-मस्जिद में क्या मिलेगा तुम्हें
कूचा-ए-यार का तवाफ़ करो
ज़िंदगी में किसे मिला है सुकूँ
ग़म से डर कर न एतकाफ़ करो
सोज़-ए-ग़म का वक़ार है तुम से
आँसुओं से न तर ग़िलाफ़ करो
सैकड़ों ज़ख़्म हैं मिरे दिल पर
अब तो यारो मुझे मुआ'फ़ करो
मस्लहत-केश वक़्त है 'वाहिद'
अपनी फ़ितरत के तुम ख़िलाफ़ करो
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ग़ज़ल
नूर से लाख इख़्तिलाफ़ करो
वाहिद प्रेमी