नुमू की ख़ाक से उट्ठेगा फिर लहू मेरा
अक़ब से वार करे चाहे जंग-जू मेरा
लकीर खींच के मुझ पे वो फिर मुझे देखे
निगार-ओ-नक़्श में चेहरा है हू-ब-हू मेरा
रक़ीब-ए-तिश्ना तू जी भर के ख़ाक चाटेगा
चटख़ के टूट गया हाथ में सुबू मेरा
मैं अपनी रूह की तारीकियों में झाँक चुका
निकल सका न कमीं-गाह से अदू मेरा
ये रूप अपने मसीहा का देख कर 'साक़िब'
अटक के रह ही गया साँस दर-गुलू मेरा
ग़ज़ल
नुमू की ख़ाक से उट्ठेगा फिर लहू मेरा
अासिफ़ साक़िब