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नुमायाँ और भी रुख़ तेरी बे-रुख़ी में रहे | शाही शायरी
numayan aur bhi ruKH teri be-ruKHi mein rahe

ग़ज़ल

नुमायाँ और भी रुख़ तेरी बे-रुख़ी में रहे

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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नुमायाँ और भी रुख़ तेरी बे-रुख़ी में रहे
सुपुर्दगी के भी पहलू कशीदगी में रहे

नज़र उठी तो उठा शोर इक क़यामत का
न जाने कैसे ये हंगामे ख़ामुशी में रहे

हवा-ए-शहर-ए-ग़रीबी की कैफ़ियत थी अजीब
नशे में रह के भी हम अपने आप ही में रहे

पुकारते रहे क्या क्या न दिल के वीराने
हम ऐसे शहर में उलझे थे शहर ही में रहे

हिसार-ए-वहशत-ए-दिल से निकल तो आए मगर
तमाम-उम्र अजब सेहर-ए-आगही में रहे

मिरी वफ़ा की हक़ीक़त ग़ुबार-ए-दश्त-ए-तलब
मिरी वफ़ा के फ़साने तिरी गली में रहे

कभी तो पहुँचेगी मंज़िल पे सर-बुलन्दी-ए-शौक़
इस आसरे पे मक़ामात-ए-बंदगी में रहे

उन्हीं से उभरी हैं कितने ग़मों की तस्वीरें
वो साए जो मिरी आँखों की रौशनी में रहे

हमें मिला था शरफ़ काएनात पर 'बाक़र'
हमें कली की तिरा दिल गिरफ़्तगी में रहे