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नोक-ए-शमशीर की घात का सिलसिला यूँ पस-ए-आइना कल उतारा गया | शाही शायरी
nok-e-shamshir ki ghat ka silsila yun pas-e-aina kal utara gaya

ग़ज़ल

नोक-ए-शमशीर की घात का सिलसिला यूँ पस-ए-आइना कल उतारा गया

सूरज नारायण

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नोक-ए-शमशीर की घात का सिलसिला यूँ पस-ए-आइना कल उतारा गया
मेरी पहचान के अक्स जितने बने कोई ज़ख़्मी हुआ कोई मारा गया

ग़ैर-महसूस रस्तों से आती रही इक सदा वापसी की मिरे कान में
गोया गूँगे इशारों की दहलीज़ पर मुझ को आँखों से उस दिन पुकारा गया

ये न पूछे कोई मौसम-ए-रंग की पहली पहली अदावत ने क्या दुख दिए
फूल की आग पर शब गुज़ारी गई ख़ार की नोक पर दिन गुज़ारा गया

आज उस के लहू की हर इक बूँद के ज़र्द होने पे ख़ुशियाँ मनाई गईं
कुछ दिनों पहले जिस रहनुमा के लिए चाँद तारों से रस्ता सँवारा गया

आप पी पी के लम्हों की सब बारिशें ज़िंदगी के मकाँ पर बरसती रहीं
इस लिए तो पिघल कर मिरे जिस्म की सारी मिट्टी गई सारा गारा गया

वो जो ऊँचे महल थे मिरे सामने ग़ौर से उन को देखा तो मुझ पर खुला
किन मनारों से चाँदी चुराई गई किन मनारों से सोना उतारा गया