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नियाज़-ओ-नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती | शाही शायरी
niyaz-o-naz ki ye shan-e-zebai nahin jati

ग़ज़ल

नियाज़-ओ-नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती

शकील बदायुनी

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नियाज़-ओ-नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती
हमारी ख़ुद-सरी उन की ख़ुद-आराई नहीं जाती

हज़ारों आईने हो कर मुक़ाबिल टूट जाते हैं
मगर हुस्न-ए-अज़ल की शान-ए-यकताई नहीं जाती

कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो
तबीअ'त ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती

मोहब्बत की हक़ीक़त कम नहीं असरार-ए-हस्ती से
समझ लेता हूँ लेकिन मुझ से समझाई नहीं जाती

ब-ज़ाहिर ज़ब्त-ए-पैहम भी शरीक-ए-दर्द-ए-उल्फ़त है
'शकील' इस पर भी अपने दिल की रुस्वाई नहीं जाती