नियाज़-ओ-नाज़ का पैकर न अर्श पर ठहरा 
ज़मीं की गोद में उतरा तो बारवर ठहरा 
गदा-ए-कूचा-ए-उलफ़त ने आबरू पाई 
दयार-ए-शौक़ में सुल्ताँ से मो'तबर ठहरा 
जिसे नज़र ने सुनाया जिसे नज़र ने सुना 
वो गीत बरबत-ए-हस्ती का ज़ख़्मा-वर ठहरा 
वफ़ा की राह में निकले तो राहदाँ की तरह 
तिरे जमाल का परतव भी हम-सफ़र ठहरा 
चराग़ दूर से देखूँ तो रौशनी ले लूँ 
यही तरीक़-ए-गदाई मिरा हुनर ठहरा 
वो एक शख़्स कि गुमनाम था ख़ुदाई में 
तुम्हारे नाम के सदक़े में नामवर ठहरा 
वो दुर्र-ए-नाब कि सीपी में बंद था 'कौसर' 
किसी ने ढूँड निकाला तो ख़ूब-तर ठहरा
        ग़ज़ल
नियाज़-ओ-नाज़ का पैकर न अर्श पर ठहरा
हमीद कौसर

