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नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं | शाही शायरी
nit-nae naqsh se baatin ko sajata hua main

ग़ज़ल

नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं

अरशद जमाल 'सारिम'

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नित-नए नक़्श से बातिन को सजाता हुआ मैं
अपने ज़ाहिर के ख़द-ओ-ख़ाल मिटाता हुआ मैं

लहज़ा लहज़ा ये फ़िदा होती हुई मुझ पे हयात
और हर आन नज़र उस से चुराता हुआ मैं

जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
सोचता रहता हूँ अब ख़्वाब उगाता हुआ मैं

हर घड़ी बढ़ती हुई तिश्ना-लबी इश्क़ तिरी!
दिल के रिसते हुए ज़ख़्मों से बुझाता हुआ मैं

रोज़ होता हुआ मुझ में किसी ख़्वाहिश का जनम
रोज़ ही क़ब्र नई ख़ुद में बनाता हुआ मैं

रहरव-ए-शौक़! करो यूँ! मिरे पीछे आओ
आओ चलता हूँ तुम्हें राह दिखाता हुआ मैं

अब कहाँ वैसे हैं इदराक के लम्हात नसीब
याद में खो के तिरी ख़ुद को वो पाता हुआ मैं

आज भी याद हैं 'सारिम' को मनाज़िर सारे
हर अदा पर वो तिरी जान से जाता हुआ मैं