EN اردو
निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा | शाही शायरी
nishan kisi ko milega bhala kahan mera

ग़ज़ल

निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा

नजीब अहमद

;

निशाँ किसी को मिलेगा भला कहाँ मेरा
कि एक रूह था मैं जिस्म था निशाँ मेरा

हर एक साँस नया साल बन के आता है
क़दम क़दम अभी बाक़ी है इम्तिहाँ मेरा

मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले
न आसमाँ का रहूँ मैं न आसमाँ मेरा

चला गया तिरे हमराह ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
कि तू ही राज़ था और तू ही राज़-दाँ मेरा

तुझे भी मेरी तरह धूप चाट जाएगी
अगर रहा न तिरे सर पे साएबाँ मेरा

मलाल-ए-रंग-ए-जलाल-ओ-जमाल ठहरा है
दयार-ए-संग हुआ है दयार-ए-जाँ मेरा

कई 'नजीब' इसी आग से जनम लेंगे
कि मेरी राख से बनना है आशियाँ मेरा