निसार उस पर न होने से न तंग आया न आर आई
मिरे किस काम आख़िर ज़िंदगी-ए-मुस्तआर आई
यहीं देखा कि ग़लबा एक को होता है लाखों पर
तबीअत एक बार आई नदामत लाख बार आई
तिरे दिल से तिरे लब तक तिरी आँखों से मिज़्गाँ तक
मोहब्बत बे-क़रार आई मुरव्वत शर्मसार आई
शराब-ए-इश्क़ से करने को था तौबा कि यार आया
मिरे आड़े ये नेकी कब की ऐ पर्वरदिगार आई
दिल-ए-महज़ूँ की आहें मस्त करती हैं मुझे 'कैफ़ी'
कि जब ली साँस मैं ने मुझ को बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार आई

ग़ज़ल
निसार उस पर न होने से न तंग आया न आर आई
कैफ़ी हैदराबादी