निसार-ए-शमअ' होने बज़्म में परवाना आ पहुँचा
क़रीब-ए-मंज़िल-ए-दीवानगी दीवाना आ पहुँचा
तराने हम्द के गुलशन में बर्ग-ए-गुल से सुनता हूँ
ज़बान-ए-ग़ुन्चा पे क्यूँकर तिरा अफ़्साना आ पहुँचा
इसे कहते हैं मिल कर ख़ाक में इक्सीर हो जाना
हुआ सरसब्ज़ वो ज़ेर-ए-ज़मीं जो दाना आ पहुँचा
सफ़र इस बज़्म से करने को फिर रजअ'त की ठानी है
गले फिर आज मिलने शम्अ' से परवाना आ पहुँचा
रक़म है दास्तान-ए-इश्क़-ए-बुलबुल पत्ते पत्ते पर
गुलों तक किस तरह गुलशन में ये अफ़्साना आ पहुँचा
खिंची थी क्या तिरी तस्वीर तरकीब-ए-अनासिर से
कि मुश्त-ए-ख़ाक में अंदाज़-ए-माशूक़ाना आ पहुँचा
परस्तार-ए-सनम हो कर जो ढूँडी राह का'बा की
क़दम बहका हुआ अपना सर-ए-मय-ख़ाना आ पहुँचा
बनेंगे आज फिर सरमस्त सहबा-ए-सुख़न 'रौनक़'
क़दम फिर अपना क़ुर्ब-ए-महफ़िल-ए-रिंदाना आ पहुँचा

ग़ज़ल
निसार-ए-शमअ' होने बज़्म में परवाना आ पहुँचा
प्यारे लाल रौनक़ देहलवी