निकले लोग सफ़र पर शब के जंगल में
रौशनी भर दे किरनों वाले पल पल में
ओ बादल कब प्यास बुझाने आएगा
वक़्त गुज़रता जाए तेरी कल कल में
चीख़ें ऐसी फूट रही हैं बस्ती से
जैसे कोई डूब रहा हो दलदल में
कौन सुकूँ दे भीगी रुत के पंछी को
अँगारों का ढेर लगा है जल-थल में
ख़ामोशी से छुप-छुप 'तारिक़' प्यार करो
जीना हो जब तूफ़ानों की हलचल में
ग़ज़ल
निकले लोग सफ़र पर शब के जंगल में
तारिक़ पीरज़ादा