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निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ | शाही शायरी
nikalna ho dil se dushwar kyun

ग़ज़ल

निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

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निकलना हो दिल से दुश्वार क्यूँ
ये इक आह है इस का पैकाँ नहीं

ये हाथ उस के दामन तलक पहुँचे कब
रसाई जिसे ता-गरेबाँ नहीं

फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे से तौर
कि अपने किए से पशेमाँ नहीं

मिरा नामा-ए-शौक़ तलवों तले
न मलिए ये ख़ून-ए-शहीदाँ नहीं

उसी की सी कहने लगे अहल-ए-हश्र
कहीं पुर्सिश-ए-दाद-ख़्वाहाँ नहीं