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निकल रहा हूँ यक़ीं की हद से गुमाँ की जानिब | शाही शायरी
nikal raha hun yaqin ki had se guman ki jaanib

ग़ज़ल

निकल रहा हूँ यक़ीं की हद से गुमाँ की जानिब

अकरम महमूद

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निकल रहा हूँ यक़ीं की हद से गुमाँ की जानिब
सफ़र है मेरा ज़मीन से आसमाँ की जानिब

मुंडेर पर कोई चश्म-ए-तर थी कि आइना था
सितारा-ए-शाम देखता था मकाँ की जानिब

ये ख़्वाब है या तिलिस्म कोई कि ख़ुश्क पत्ते
खिंचे चले जा रहे हैं आब-ए-रवाँ की जानिब

कोई तो ऊपर से बोझ डाला गया है वर्ना
झुका हुआ आसमाँ है क्यूँ ख़ाक-दाँ की जानिब

तो फिर मिरे साथ उस का चलना मुहाल ठहरा
ध्यान रहता था उस का सूद-ओ-ज़ियाँ की जानिब

सुकूनत-ए-क़ल्ब ख़ाली सीने पे ऐसे उतरी
अमाँ ख़ुदी चल के आ गई बे-अमाँ की जानिब