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नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है | शाही शायरी
nindon ka ek aalam-e-asbab aur hai

ग़ज़ल

नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है

अब्बास ताबिश

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नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है
शायद किसी की आँख में इक ख़्वाब और है

तू मुझ को ताक़-ए-सीना में रक्खा हुआ न जान
मैं जिस में जल रहा हूँ वो मेहराब और है

यूँही नहीं ये ज़रबत-ए-तेशा की दस्तकें
लगता है इक फ़सील पस-ए-बाब और है

लहरा रहा है सत्ह पे महताब-ए-ग़ोता-ज़न
हर-चंद एक शहर तह-ए-आब और है

फूटी हैं जिस जगह मिरी आँखों की कोंपलें
दिल से परे वो ख़ित्ता-ए-शादाब और है

खोया हुआ हूँ नींद के पर्दे के उस तरफ़
लगता है एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है

किरनें तो इक निगाह-ए-सुबुक-रौ की लहर हैं
दुम्बाला-दारी-ए-शब-ए-महताब और है

'ताबिश' ये तेरा अक्स नहीं मेरी आँख में
इस झील में ये परतव-ए-ज़रताब और है