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नींद आई ही नहीं हम को न पूछो कब से | शाही शायरी
nind aai hi nahin hum ko na puchho kab se

ग़ज़ल

नींद आई ही नहीं हम को न पूछो कब से

सदा अम्बालवी

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नींद आई ही नहीं हम को न पूछो कब से
आँख लगती ही नहीं दिल है लगाया जब से

उन को महबूब कहें या कि रक़ीब अब अपना
उन को भी प्यार हुआ जाए है अपनी छब से

अश्क आँखों से मिरी निकले मुसलसल लेकिन
उस ने इक हर्फ़-ए-तसल्ली न निकाला लब से

दिल सिखाता है सब आदाब मोहब्बत के ख़ुद
ये सबक़ सीखा नहीं जाता किसी मकतब से

अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बाँ थी प्यारे
अब सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से

मैं भी तो देखूँ ग़रज़ से झुकी आँखें उन की
काश आएँ वो मिरे पास कभी मतलब से

भीड़ हम जैसों की रहती है हमेशा यूँ तो
रौशनी होती है महफ़िल में बस इक कौकब से

मिरी आँखों के लिए रौशनी से है बढ़ कर
तिरी ज़ुल्फ़ों की सियाही जो है गहरी शब से

सीख नफ़रत की न दे ऐ 'सदा' मज़हब कोई
है उसूल अपना किए जाओ मोहब्बत सब से