निगाहों पर निगहबानी बहुत है
नवाज़िश ज़िल्ल-ए-सुब्हानी बहुत है
यहाँ ऐसे ही हम कब बैठ जाते
तिरे कूचे में वीरानी बहुत है
अभी क़स्द-ए-सफ़र का क़िस्सा कैसा
अभी राहों में आसानी बहुत है
तिरी आँखें ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे
तिरी आँखों में हैरानी बहुत है
लब-ए-दरिया ज़बाँ से तर करेंगे
अभी तलवार में पानी बहुत है
मुबारक उन को सुल्तानी अदब की
मुझे तो उस की दरबानी बहुत है

ग़ज़ल
निगाहों पर निगहबानी बहुत है
शीन काफ़ निज़ाम