निगाहें मुंतज़िर हैं किस की दिल को जुस्तुजू क्या है
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम मेरी आरज़ू क्या है
बदलती जा रही है करवटों पर करवटें दुनिया
किसी सूरत नहीं खुलता जहान-ए-रंग-ओ-बू क्या है
ये सोचा दिल को नज़्र-ए-आरज़ू करते हुए हम ने
निगाह-ए-हुस्न-ए-ख़ुद-आरा में दिल की आबरू क्या है
मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
कि जैसे पूछती हो कौन हो तुम जुस्तुजू क्या है
हुआ करती है दिल से गुफ़्तुगू बे-ख़्वाब रातों में
मगर खुलता नहीं मुझ पर कि 'अख़्तर' गुफ़्तुगू क्या है
मैं इन आँखों को क्या समझूँ कि अपनी ख़ाना-वीरानी
जिन्हें ये भी नहीं मालूम ख़ून-ए-आरज़ू क्या है
किरन सूरज की कहती है फिर आएगी शब-ए-हिज्राँ
सहर होती है 'अख़्तर' सो रहो ये हाव-हू क्या है
ग़ज़ल
निगाहें मुंतज़िर हैं किस की दिल को जुस्तुजू क्या है
अख़्तर सईद ख़ान