EN اردو
निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ | शाही शायरी
nigah oT rahun kasa-e-KHabar mein rahun

ग़ज़ल

निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ

अदा जाफ़री

;

निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ
मैं बुझते बुझते भी पैराहन-ए-शरर में रहूँ

मैं ख़ुद ही रोज़ तमन्ना में आप शाम-ए-फ़िराक़
अजब नहीं जो अकेली भरे नगर में रहूँ

सुलग उठी तो अँधेरों का रख लिया है भरम
जो रौशनी हों तो क्यूँ चश्म-ए-नौहा-गर में रहूँ

तमाम उम्र सफ़र में गुज़ार दूँ अपनी
तमाम उम्र तमन्ना-ए-रहगुज़र में रहूँ

लिखा गया मुझे आवाज़-ए-ख़ामुशी की तरह
ख़ुद अपना अक्स बनूँ साया-ए-हुनर में रहूँ

वो तिश्नगी थी कि शबनम को होंट तरसे हैं
वो आब हूँ कि मुक़य्यद गुहर गुहर में रहूँ

'अदा' मैं निकहत-ए-गुल भी न थी सबा न थी
कि मेहमाँ सी रहूँ और अपने घर में रहूँ