निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ
मैं बुझते बुझते भी पैराहन-ए-शरर में रहूँ
मैं ख़ुद ही रोज़ तमन्ना में आप शाम-ए-फ़िराक़
अजब नहीं जो अकेली भरे नगर में रहूँ
सुलग उठी तो अँधेरों का रख लिया है भरम
जो रौशनी हों तो क्यूँ चश्म-ए-नौहा-गर में रहूँ
तमाम उम्र सफ़र में गुज़ार दूँ अपनी
तमाम उम्र तमन्ना-ए-रहगुज़र में रहूँ
लिखा गया मुझे आवाज़-ए-ख़ामुशी की तरह
ख़ुद अपना अक्स बनूँ साया-ए-हुनर में रहूँ
वो तिश्नगी थी कि शबनम को होंट तरसे हैं
वो आब हूँ कि मुक़य्यद गुहर गुहर में रहूँ
'अदा' मैं निकहत-ए-गुल भी न थी सबा न थी
कि मेहमाँ सी रहूँ और अपने घर में रहूँ
ग़ज़ल
निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ
अदा जाफ़री