निगाह ओ दिल के तमाम रिश्ते फ़ज़ा-ए-आलम से कट गए हैं
जुदाइयों के अज़ाब मौसम बिसात-ए-हस्ती उलट गए हैं
वो जिस की यादों से शाएरी का हर एक मिस्रा सजाया हम ने
किताब-ए-जाँ के तमाम सफ़्हे उसी के हाथों से फट गए हैं
यहाँ पे कुछ भी नहीं है बाक़ी तू अक्स अपना तलाश मत कर
मिरी निगाहों के आइने अब ग़ुबार-ए-फ़ुर्क़त से अट गए हैं
यही असासा थे ज़िंदगी का ये ख़्वाब ही थे मिरा सहारा
तिरे तग़ाफ़ुल के संग-रेज़ो से किर्चियों में जो बट गए हैं
ये मोजज़ा तो नहीं है कोई ख़िराज है अपनी हिम्मतों का
कि अपने रस्ते में आने वाले तमाम कोहसार हिट गए हैं
ख़ुश आ गया है सफ़र में जीना इसी लिए तो शकील-'जाज़िब'
जहाँ से मंज़िल क़रीब देखी वहीं से वापस पलट गए हैं
ग़ज़ल
निगाह ओ दिल के तमाम रिश्ते फ़ज़ा-ए-आलम से कट गए हैं
शकील जाज़िब