निगाह नीची हुई है मेरी
ये टूटने की घड़ी है मेरी
पलट पलट कर जो देखता हूँ
कोई सदा अन-सुनी है मेरी
ये काम दोनों तरफ़ हुआ है
उसे भी आदत पड़ी है मेरी
तमाम चेहरों को एक कर के
अजीब सूरत बनी है मेरी
वहीं पे ले जाएगी ये मिट्टी
जहाँ सवारी खड़ी है मेरी

ग़ज़ल
निगाह नीची हुई है मेरी
शारिक़ कैफ़ी