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निगाह-ए-शौक़ को रुख़ पर निसार होने दो | शाही शायरी
nigah-e-shauq ko ruKH par nisar hone do

ग़ज़ल

निगाह-ए-शौक़ को रुख़ पर निसार होने दो

ज़हीर अहमद ताज

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निगाह-ए-शौक़ को रुख़ पर निसार होने दो
ये रंग लाएगी क्या क्या बहार होने दो

रहीन-ए-जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार होने दो
जो हो रहा है कोई बे-क़रार होने दो

दिल-ए-हज़ीं को मिरे जल्वा-ज़ार होने दो
ख़िज़ाँ-नसीब चमन में बहार होने दो

दिल-ए-फ़िराक़-ज़दा में क़रार होने दो
दम-ए-अजल तो निगाहों को चार होने दो

करिश्मे देखना मर मर के जीने वालों के
तुम अपने कूचे में मेरा मज़ार होने दो

तुम अपने वा'दों की ईफ़ा करो उमीद नहीं
जहाँ में हुस्न को बे-ए'तिबार होने दो

शब-ए-फ़िराक़ में लो चल बसा तुम्हारा 'ताज'
क़याम-ए-हश्र तक अब इंतिज़ार होने दो