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निगाह-ए-क़हर-परवर को भी तम्हीद-ए-ख़ुशी समझे | शाही शायरी
nigah-e-qahr-parwar ko bhi tamhid-e-KHushi samjhe

ग़ज़ल

निगाह-ए-क़हर-परवर को भी तम्हीद-ए-ख़ुशी समझे

नख़्शब जार्चवि

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निगाह-ए-क़हर-परवर को भी तम्हीद-ए-ख़ुशी समझे
समझना है तो कोई हम से राज़-ए-ज़िंदगी समझे

वफ़ाओं का नतीजा हम तो जो कुछ है समझते हैं
मगर ऐ काश अंजाम-ए-जफ़ा वो भी कभी समझे

उसे दैर-ओ-हरम में जाज़बिय्यत क्या नज़र आए
जो तेरी दीद को अस्ल-ए-मज़ाक़-ए-बंदगी समझे

हमें तो ख़ैर जो कुछ आप ने चाहा वो समझाया
मगर ये तो ज़रा समझाइए कुछ आप भी समझे

भला 'नख़शब' तिरे इस बे-नियाज़ाना रवय्ये को
कमाल-ए-क़ुर्ब जाने या मोहब्बत की कमी समझे