निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है
मोहब्बत और मोहकम हो गई है
तबीअत कुश्ता-ए-ग़म हो गई है
चराग़-ए-बज़्म-ए-मातम हो गई है
मआल-ए-ज़ब्त-ए-पैहम हो गई है
मसर्रत हासिल-ए-ग़म हो गई है
तमन्ना जब बढ़ी है अपनी हद से
तो मायूसी का आलम हो गई है
न जाने क्यूँ अदावत ही अदावत है
सिरिश्त-ए-इब्न-ए-आदम हो गई है
है महव-ए-रक़्स हर बर्ग-ए-चमन पर
बड़ी बेबाक शबनम हो गई है
हँसी होंटों पर आते आते 'अख़्तर'
पयाम-ए-गिर्या-ए-ग़म हो गई है
ग़ज़ल
निगाह-ए-लुत्फ़ क्या कम हो गई है
अलीम अख़्तर