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निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद | शाही शायरी
nigah-e-husn ki tasir ban gaya shayad

ग़ज़ल

निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद

फ़ितरत अंसारी

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निगाह-ए-हुस्न की तासीर बन गया शायद
ख़याल-ए-ज़ेहन में ज़ंजीर बन गया शायद

वो एक नाम जो तुम ने मिटा दिया है अभी
जबीन-ए-वक़्त पे तहरीर बन गया शायद

मिरी निगाह में ना-मो'तबर था जिस का वजूद
वो फ़ासला मिरी तक़दीर बन गया शायद

ख़ुद अपना चेहरा भी अब तो नज़र नहीं आता
हर आइना तिरी तस्वीर बन गया शायद

रह-ए-ख़ुलूस में फ़ितरत थी जिस की मुस्तहकम
वो संग-ए-मील भी रहगीर बन गया शायद