निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही
गँवाए होश भी उस दिलरुबा को छूते ही
तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
चमन में शोख़ी-ए-बाद-ए-सबा को छूते ही
मशाम-ए-जाँ में अजब है सुरूर का आलम
तसव्वुरात में ज़ुल्फ़-ए-दोता को छूते ही
निगाह-ए-शौक़ की सब उँगलियाँ सुलग उट्ठीं
गुलाब जिस्म की रंगीं क़बा को छूते ही
नज़र को हेच नज़र आए सब हसीं मंज़र
बस इक शुआ-ए-रुख़-ए-जाँ-फ़ज़ा को छूते ही
जो आँसुओं से हुई बा-वज़ू अकेले में
दर-ए-क़ुबूल खुला उस दुआ को छूते ही
नहाईं शिद्दत-ए-एहसास के उजाले में
समाअतें मिरे सोज़-ए-नवा को छूते ही
हिसार-ए-ज़ब्त जो टूटा तो आँख भर आई
दयार-ए-ग़ैर में इक आश्ना को छूते ही
लहू में डूब के काँटे बने चराग़ 'ज़फ़र'
रह-ए-वफ़ा में हम आशुफ़्ता-पा को छूते ही
ग़ज़ल
निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही
ज़फ़र मुरादाबादी