निगाह-ए-अव्वलीं का है तक़ाज़ा देखते रहना
कि जिस को देखना उस को हमेशा देखते रहना
न मुझ को नींद आती है न दिल से बात जाती है
ये किस ने कह दिया मुझ से कि रस्ता देखते रहना
अभी अच्छे नहीं लगते जुनूँ के पेच-ओ-ख़म उस को
कभी इस रह से गुज़रेगी ये दुनिया देखते रहना
दिए की लौ न बन जाए तनाब-ए-सरसरी उस की
मैं दरिया की तरफ़ जाता हूँ ख़ेमा देखते रहना
कोई चेहरा ही मुमकिन है तुम्हारे जी को लग जाए
तमाशा देखने वालो तमाशा देखते रहना
कि अब तो देखने में भी हैं कुछ महवीयतें ऐसी
कहीं पत्थर न कर डाले ये मेरा देखते रहना
सरिश्क-ए-ख़ूँ कभी मिज़्गाँ तलक आया नहीं फिर भी
किनारे आ लगे शायद ये दरिया देखते रहना
निगाह-ए-सरसरी 'ताबिश' मुहीत-ए-हुस्न क्या होगी
जहाँ तक देखने का हो तक़ाज़ा देखते रहना
ग़ज़ल
निगाह-ए-अव्वलीं का है तक़ाज़ा देखते रहना
अब्बास ताबिश