ने फ़िक़्ह न मंतिक़ ने हिकमत का रिसाला है
इस फन्न-ए-मोहब्बत का नुस्ख़ा ही निराला है
ख़तरा है मुझे अब तो चुप रहने से भी अपने
क्या है कि न सोज़िश है वो आह न नाला है
दिल ही न खुले अपना तो कीजिए क्या वर्ना
सब्ज़ा है गुलिस्ताँ है गुलज़ार है लाला है
क्यूँकर न समर लावे शाख़-ए-मिज़ा लख़्त-ए-दिल
सौ ख़ून-ए-जिगर से मैं इस तीर को पाला है
है दिल में तो वो लेकिन दिखलाई नहीं देता
बाहर तो अंधेरा है और घर में उजाला है
ताजील न कर ऐ दिल आने तो लगा है वो
मिल जाएगा बोसा भी क्या मुँह का निवाला है
कैफ़िय्यत-ए-मय-ख़ाना बस देख ले अब क्या है
साक़ी है न सहबा है शीशा है न प्याला है
ये चाल अगर है तो रहने का नहीं अब दिल
बे-तरह से उस ने तो कुछ पाँव निकाला है
तू होता तो क्या होता कल नाम तिरा लेते
गुलशन में 'हसन' को मैं गिरने से सँभाला है
ग़ज़ल
ने फ़िक़्ह न मंतिक़ ने हिकमत का रिसाला है
मीर हसन