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ने फ़िक़्ह न मंतिक़ ने हिकमत का रिसाला है | शाही शायरी
ne fiqh na mantiq ne hikmat ka risala hai

ग़ज़ल

ने फ़िक़्ह न मंतिक़ ने हिकमत का रिसाला है

मीर हसन

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ने फ़िक़्ह न मंतिक़ ने हिकमत का रिसाला है
इस फन्न-ए-मोहब्बत का नुस्ख़ा ही निराला है

ख़तरा है मुझे अब तो चुप रहने से भी अपने
क्या है कि न सोज़िश है वो आह न नाला है

दिल ही न खुले अपना तो कीजिए क्या वर्ना
सब्ज़ा है गुलिस्ताँ है गुलज़ार है लाला है

क्यूँकर न समर लावे शाख़-ए-मिज़ा लख़्त-ए-दिल
सौ ख़ून-ए-जिगर से मैं इस तीर को पाला है

है दिल में तो वो लेकिन दिखलाई नहीं देता
बाहर तो अंधेरा है और घर में उजाला है

ताजील न कर ऐ दिल आने तो लगा है वो
मिल जाएगा बोसा भी क्या मुँह का निवाला है

कैफ़िय्यत-ए-मय-ख़ाना बस देख ले अब क्या है
साक़ी है न सहबा है शीशा है न प्याला है

ये चाल अगर है तो रहने का नहीं अब दिल
बे-तरह से उस ने तो कुछ पाँव निकाला है

तू होता तो क्या होता कल नाम तिरा लेते
गुलशन में 'हसन' को मैं गिरने से सँभाला है