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ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है | शाही शायरी
ne but hai na sajda hai ne baada na masti hai

ग़ज़ल

ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
याँ शेर-परस्ती है या हुस्न-परस्ती है

साइद से तिरे शोले यूँ हुस्न के उठते हैं
हाथों में तिरे गोया महताबी-ए-दस्ती है

बीमारी-ए-सिल से कम समझो न ग़म-ए-उल्फ़त
ये सिल मिरे सीने से अब कोई अकसती है

मामूरा-ए-दिल अपना वीरान रहा बरसों
वो कौन सी बस्ती है क्या जाने जो बस्ती है

मिस्सी की धड़ी उस की नज़रों से जो है ग़ाएब
या-रब वो सियह बदली कीधर को बरसती है

बुलबुल को क़फ़स से कब सय्याद तू छोड़ेगा
नज़्ज़ारा-ए-गुल को ये हर साल तरसती है

सर दे के भी हाथ आवे गर तेग़-ए-ख़म-ए-अबरू
ऐ 'मुसहफ़ी' हम तो भी समझें हैं कि सस्ती है