नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
भीगी हुई पलकों के किनारे की तरह हम
ये रूप तो सूरज को भी हासिल नहीं होता
कुछ देर रहे सुब्ह के तारे की तरह हम
हम ने भी तो इक उम्र ये ग़म सैंत के रक्खे
अब क्या है जो भारी हैं ख़सारे की तरह हम
इक क़ौम है चाँदी की जो मिट्टी पे खिंची है
सहरा में हैं बहते हुए धारे की तरह हम
इस रात में पल पल कभी रौशन कभी रू-पोश
इक दूर के तारे के इशारे की तरह हम
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
शोले से निकल आए शरारे की तरह हम
ये फ़ख़्र किसी और से मंसूब न होगा
हर गाम हैं ख़ुद अपने सहारे की तरह हम

ग़ज़ल
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
सऊद उस्मानी