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नज़रों का मोहब्बत भरा पैग़ाम बहुत है | शाही शायरी
nazron ka mohabbat bhara paigham bahut hai

ग़ज़ल

नज़रों का मोहब्बत भरा पैग़ाम बहुत है

मोज फ़तेहगढ़ी

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नज़रों का मोहब्बत भरा पैग़ाम बहुत है
मजबूर-ए-वफ़ा के लिए इनआ'म बहुत है

कुछ बादा-ओ-साग़र की ज़रूरत नहीं मुझ को
आँखों से छलकती मय-ए-गुलफ़ाम बहुत है

क्या हाल हो क्या जाने शब-ए-ग़म की सहर का
बेताबी-ए-दिल आज सर-ए-शाम बहुत है

तौहीन-ए-मोहब्बत हैं मोहब्बत में ये शिकवे
लगता है अभी हुस्न-ए-तलब-ख़ाम बहुत है

बे-वज्ह मुझे बेवफ़ा कहते तो हो लेकिन
तुम पर भी इसी क़िस्म का इल्ज़ाम बहुत है

नादान रह-ए-इश्क़ को आसान न समझें
इस राह में कठिनाई ब-हर-गाम बहुत है

इस शौक़ अदाओं को कोई कुछ नहीं कहता
चर्चा मिरी उल्फ़त का सर-ए-आम बहुत है

कुछ आ ही गया दोस्त का दुश्मन का सलीक़ा
एहसान तिरा गर्दिश-ए-अय्याम बहुत है

अफ़्कार-ए-ज़माना कभी अफ़्कार-ए-मोहब्बत
है ज़िंदगी थोड़ी सी मगर काम बहुत है

ऐ 'मौज' सुकूँ-बख़्श हैं अमवाज-ए-मोहब्बत
आग़ोश में तूफ़ाँ के भी आराम बहुत है