नज़रें मिलीं चराग़ जले रौशनी हुई
लौ दे उठी फिर अपनी तबीअत बुझी हुई
ख़ून-ए-जिगर से निखरे ख़द-ओ-ख़ाल-ए-आरज़ू
दिल के लहू से शाख़-ए-तमन्ना हरी हुई
अब सुब्ह-ए-नौ-बहार की क्या आरज़ू करें
इक शाख़-ए-आशियाँ है सो वो भी जली हुई
फिर याद आ गईं शब-ए-हिज्राँ की तल्ख़ियाँ
दिल को कभी ख़ुशी जो घड़ी-दो-घड़ी हुई
भड़का दिया उसे तिरे दो दिन के प्यार ने
इक उम्र से जो आग थी दिल में दबी हुई
दिल ही तो एक दैर-ओ-हरम का चराग़ था
दिल बुझ गया तो फिर न कहीं रौशनी हुई
दुनिया ब-जुज़ तिलिस्म-ए-नज़र और कुछ नहीं
ख़ुद को दिए फ़रेब अगर आगही हुई
वो चाँद-रात तेरा बिछड़ना नज़र में है
इस घर में तेरे बा'द कहाँ रौशनी हुई
इस ख़ुद-फ़रेब दिल ने वो रुस्वा किया हमें
हम अपने हो सके न तिरी बंदगी हुई
आबाद जिस से थीं मिरी तन्हाइयाँ 'कलीम'
नज़रों में है वो महफ़िल-ए-याराँ सजी हुई

ग़ज़ल
नज़रें मिलीं चराग़ जले रौशनी हुई
अता हुसैन कलीम