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नज़रें मिलीं चराग़ जले रौशनी हुई | शाही शायरी
nazren milin charagh jale raushni hui

ग़ज़ल

नज़रें मिलीं चराग़ जले रौशनी हुई

अता हुसैन कलीम

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नज़रें मिलीं चराग़ जले रौशनी हुई
लौ दे उठी फिर अपनी तबीअत बुझी हुई

ख़ून-ए-जिगर से निखरे ख़द-ओ-ख़ाल-ए-आरज़ू
दिल के लहू से शाख़-ए-तमन्ना हरी हुई

अब सुब्ह-ए-नौ-बहार की क्या आरज़ू करें
इक शाख़-ए-आशियाँ है सो वो भी जली हुई

फिर याद आ गईं शब-ए-हिज्राँ की तल्ख़ियाँ
दिल को कभी ख़ुशी जो घड़ी-दो-घड़ी हुई

भड़का दिया उसे तिरे दो दिन के प्यार ने
इक उम्र से जो आग थी दिल में दबी हुई

दिल ही तो एक दैर-ओ-हरम का चराग़ था
दिल बुझ गया तो फिर न कहीं रौशनी हुई

दुनिया ब-जुज़ तिलिस्म-ए-नज़र और कुछ नहीं
ख़ुद को दिए फ़रेब अगर आगही हुई

वो चाँद-रात तेरा बिछड़ना नज़र में है
इस घर में तेरे बा'द कहाँ रौशनी हुई

इस ख़ुद-फ़रेब दिल ने वो रुस्वा किया हमें
हम अपने हो सके न तिरी बंदगी हुई

आबाद जिस से थीं मिरी तन्हाइयाँ 'कलीम'
नज़रों में है वो महफ़िल-ए-याराँ सजी हुई