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नज़र तक आया है पहचान तक नहीं आया | शाही शायरी
nazar tak aaya hai pahchan tak nahin aaya

ग़ज़ल

नज़र तक आया है पहचान तक नहीं आया

कामरान नदीम

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नज़र तक आया है पहचान तक नहीं आया
ये वाहिमा अभी इम्कान तक नहीं आया

जराहत-ए-ग़म-ए-दौराँ की इब्तिदा कहिए
दिल-ए-जहाँ-ज़दा पैकान तक नहीं आया

वो और बात कि जाँ की अमान माँगी थी
मैं उस की बैअ'त-ओ-पैमान तक नहीं आया

बस उस के लम्स का इल्हाम ही उतरता है
वो मेरे मुसहफ़-ए-विज्दान तक नहीं आया

ये ज़िंदगी तो नफ़ी में गुज़ार दी मैं ने
पर उस के हल्क़ा-ए-मीज़ान तक नहीं आया

किताब-ए-हुस्न की ताबीर ख़ैर क्या करता
'नदीम' आइना उन्वान तक नहीं आया