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नज़र तज पे है क्या तमाशा का हाजत | शाही शायरी
nazar taj pe hai kya tamasha ka hajat

ग़ज़ल

नज़र तज पे है क्या तमाशा का हाजत

क़ुली क़ुतुब शाह

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नज़र तज पे है क्या तमाशा का हाजत
नहीं सब्ज़ ख़त आगे चम्पा का हाजत

तबीबाँ करें मुंज कूँ बाली सूँ दारू
कि बाली हैं मोहन है बाला का हाजत

हमीं नेशकर नमने हिलजे हैं बंद में
नहीं होर हमना कूँ जाला का हाजत

ख़ुमारी नयन थे खिले फूल जीव में
नहीं मो को दूना ओ बाला का हाजत

मिरा दिल है ज़र-बफ़त का कारख़ाना
नहीं मुंज कूँ बाज़ार वाला का हाजत

तू कहनियाँ किताबाँ के जीव में लिख्या हूँ
मुअम्मा है नीं खोल कहना का हाजत

अँगूठी सुलैमाँ की तुज हात में है
सिकंदर के दर्पन उजाला का हाजत

मिरा दिल कुंदन हुस्न का खान है तू
नहीं है सुनारी तक़ाज़ा का हाजत

हमन मुद्दआ मुद्दई ना बुझे कुच
नको बहस करनीं है आदा का हाजत

'मआनी' तिरा ज़र-गरी कुइ न बूझें
कि इस इल्म में नीं है दाना का हाजत