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नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी | शाही शायरी
nazar mili thi kisi be-KHabar se pahle bhi

ग़ज़ल

नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी

नामी अंसारी

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नज़र मिली थी किसी बे-ख़बर से पहले भी
सदा-ए-तिश्ना उठी थी जिगर से पहले भी

ये सेहर कम है कि शादाब हो गया सहरा
बहे थे अश्क बहुत चश्म-ए-तर से पहले भी

नया नहीं है तक़ाज़ा-ए-शीशा-ओ-तेशा
गुज़र चुका हूँ मैं इस दर्द-ए-सर से पहले भी

मैं ख़ाक छानने वाला सवाद-ए-सहरा का
पड़े थे पाँव में छाले सफ़र से पहले भी

हिसार-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ में न रह सका 'नामी'
कि आश्ना था मक़ाम-ए-हुनर से पहले भी