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नज़र में अर्श-ए-बरीं है किसी को क्या मालूम | शाही शायरी
nazar mein arsh-e-barin hai kisi ko kya malum

ग़ज़ल

नज़र में अर्श-ए-बरीं है किसी को क्या मालूम

सीमा शकीब

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नज़र में अर्श-ए-बरीं है किसी को क्या मालूम
कहाँ ये ख़ाक-नशीं है किसी को क्या मालूम

तमाम हेच है दुनिया अलाएक़-ए-दुनिया
जो नक़्श ज़ेब-ए-जबीं है किसी को क्या मालूम

तुम्हें ख़बर ही नहीं क्या है विर्सा-ए-दरवेश
जहान-ए-ज़ेर-ए-नगीं है किसी को क्या मालूम

बिला सबब तो ये लर्ज़िश हुआ नहीं करती
जो आग ज़ेर-ए-ज़मीं है किसी को क्या मालूम

न दर खुला न दरीचे कभी खुले देखे
मकाँ में कौन मकीं है किसी को क्या मालूम

वो एक लफ़्ज़ जो उतरा न ज़ीना-ए-लब से
हमें उसी का यक़ीं है किसी को क्या मालूम

पयाम्बर की ज़रूरत न शरह-ए-दिल का ख़याल
वो किस का बला ज़हीं है किसी को क्या मालूम