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नज़र को वक़्फ़-ए-हैरत कर दिया है | शाही शायरी
nazar ko waqf-e-hairat kar diya hai

ग़ज़ल

नज़र को वक़्फ़-ए-हैरत कर दिया है

असलम कोलसरी

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नज़र को वक़्फ़-ए-हैरत कर दिया है
उसे भी दिल से रुख़्सत कर दिया है

बराए-नाम था आराम जिस को
ग़ज़ल कह कर मुसीबत कर दिया है

समझते हैं कहाँ पत्थर किसी की
मगर इतमाम-ए-हुज्जत कर दिया है

गली-कूचों में जलती रौशनी ने
हसीं शामों को शामत कर दिया है

बसीरत एक दौलत ही थी आख़िर
सो दौलत को बसीरत कर दिया है

कई हमदम निकल आए हैं जब से
ज़बाँ को सिर्फ़ ग़ीबत कर दिया है

सुख़न के बाब में भी हम ने 'असलम'
जो करना था ब-उजलत कर दिया है