नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
मिरी हयात पराए का बंद-ओ-बस्त लगे
न वो नुक़ूश न हुस्न-ए-कशिश की बात रही
सनम-फ़रोश भी जैसे ख़ुदा-परस्त लगे
अभी मिला था अभी फिर बिछड़ गया कोई
ये हादसा भी हिकायात-ए-बूद-ओ-हस्त लगे
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
ये फ़ासला भी तो इंसाँ की एक जस्त लगे
वहाँ सफ़ीने को पहुँचा दिया है तूफ़ाँ ने
हर एक मौज-ए-बला अब जहाँ से पस्त लगे
तिरे ही ग़म ने किसी सम्त देखने न दिया
कि अब हुजूम-ए-तमन्ना भी तंग-दस्त लगे
जो तेरी बज़्म से 'बेकल' चला तो होश में था
अजीब बात है अब वो भी मस्त मस्त लगे
ग़ज़ल
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
बेकल उत्साही