EN اردو
नज़र जो आता है बाहर में कब वो अंदर हूँ | शाही शायरी
nazar jo aata hai bahar mein kab wo andar hun

ग़ज़ल

नज़र जो आता है बाहर में कब वो अंदर हूँ

अलक़मा शिबली

;

नज़र जो आता है बाहर में कब वो अंदर हूँ
मैं आदमी हूँ कहाँ आदमी का पैकर हूँ

रहा जो भीड़ में भी मुश्फ़िक़ों की सर-अफ़राज़
ख़ुदा-गवाह में वैसा ही एक मसदर हूँ

सफ़ीना कोई सलामत न रह सकेगा अब
क़सम-ख़ुदा-की मैं बिफरा हुआ समुंदर हूँ

ये और बात कि तुम को मैं याद आ न सका
वगर्ना आज भी महफ़िल में हर ज़बाँ पर हूँ

थी मेरी ज़ात कभी काएनात का मेहवर
हिसार-ए-ज़ात में लेकिन मैं आज शश्दर हूँ

दिलों के बंद दरीचे भी जिस से खुल जाएँ
जो पढ़ सको तो पढ़े जाओ मैं वो मंतर हूँ

जो पढ़ सके न मिरा चेहरा भी वो ख़ुद-बीं तुम
जो दर्द लम्हों का समझे मैं वो क़लंदर हूँ